एक डर बज़बज़ा रहा है
सुनसान पड़ी सड़क पर
ना कोई आ रहा है
ना कोई जा रहा है
सूखे पत्ते हवा में
उड़ रहे हैं कभी इधर कभी उधर
बस उन्हीं की आवाज सुनाई देती है
इस उदास शाम के बीच
उतरती शाम के संग संग
उतर रही है लाकडाउन की छायाएं
मुंह ढांपकर अबोले से उतरते हैं
इक्का दुक्का छितराए से
दूरी बनाते ,बचते बचाते से लोग
अपार्टमेंट के बाहर खड़े हाकर से
फल सब्जी खरीदने ।
यूंही लोग हवा की तरह
बातों का रंग बदलते देखते है
साम्यवादी चीन की करतूत है ये
ना भाई ,ना
ये तो तब्लीग़ी जमात़ का करनामा है
बहस और आरोपों-प्रत्यारोपों के
टीवी कार्यक्रम से बाहर
हर व्यक्ति अकेला खड़ा है
लम्बी होती अपनी छाया के संग ।
शहर में अफवाहों का बाज़ार सजता है
व्हाट्स अप पर एक ग्रुप से
दूसरे ग्रुप तक सनसनी मचा कर
फल मत खरीदना उस दाढ़ी वाले से
जो बदनीयती का थूक लगाता है
बीमारी फैलाता है
धर्म की टोपी पहनकर
अधर्म का बाज़ार सजाता है ।
दुर्भावनावों की दुर्गंध से
बड़ी होती है सद्भावनाओं की सुगंध
हर कुत्सित इरादों को नाकाम कर
सदाशयता अपनी चाल चलती है
सहज ही जीवन सधे कदम चलता है
हर बीमारी के बाद
ज़िन्दगी अपनी रफ़्तार चलती है
तमाम घबराहटों को नाकाम कर
करोना से आगे निकल ।