राजधानी में घनघोर अंधेरों का बसेरा
दिन में भी है चमकते उजाले की चाह
सूरज के दरश को
तरसती आखें हैं
सिकुड़ती हवा है यहाँ
लोग नाक भौंह चिढाते से
मुँह पर पट्टी लगाए
किसी छूत की बीमारी से सावधान ।
रेडियों ,टी.वी.,समाचारपत्र
प्रदूषण के खतरों की
सूचना का आतंक फैलाते
पैसा बटोर रहे हैं ।
सभी संवैधानिक संस्थाएं
खतरों से सावधान
उदघोषणाओं पर उदघोषणा करती
बदलती नियम उपनियम
अपनी सीमाओं में बंधी
अपने बोझ को
दूसरों के कंधै उतारती
प्रदूषण के नाम पर
छुट्टियों का लुत्फ उठाकर
एयर प्यूरिफायर तले
आराम फरमा रही हैं ।
सुबह शाम पाँच तारा होटलों में
चर्चा होती है
प्रदूषण पर लम्बी बहस के बाद
बन्द कमरों में
चलता है क्लोज ग्रुप इंटरटेंमेंट
शुद्ध मनोरंजन प्रदूषण मुक्त
अगले दिन समाचार बनता है
कांफ्रेंस का बिल
हर तरह.से जमा घटा करके
प्रति व्यक्ति पचास हजार
प्रदूषण मुक्ति के लिए
ये कीमत
ज्यादा नहीं है ।
शहर के यथार्थ को मुखर करती कविता। कविता में तकलीफ और व्यंग्य दोनों एक साथ
अभिव्यंजित हुए हैं।
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आभार सार्थक टिप्पणी के लिए
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