घिर आई शाम
काम से लौटती औरत के
उदास चेहरे पर ठहर गयी हैं
चिंता की लकीरें
कुछ खोजती सी चलती है
नजरें इधर उधर घुमाती
ठिठक कर खड़ी हो जाती है
वो उस पेड़ के नीचे पडी़ दिखती है
कुछ सूखी लकड़ियाँ
एक एक करके चुनती है
सभी छोटी बड़ी लकड़ियाँ
फिर कुछ और पेडो़ के नीचे
झाकँती है,चुनती है सूखी लकड़ियाँ
शाम का खाना पकाने के लिए
कुछ और मजदूर औरतें
उसे देखकर
वैसा ही करती है
जिंदगी को तिनका तिनका समेटती है
एक सघंर्ष गाथा लिखे जाने तक ।
शाम घिर आई है
टूटे झोपडे़ के बाहर
चूल्हा ठंडा पड़ा है
ईंधन लाकर करीने से रख दिया है
आटे और पैसों के बीच
चर्चा जारी है
कम कौन पड़ेगा
हिसाब करना जरुरी है
लाला की उठी आखें
ग्राहक की बुझी आखों के बीच
कसैलापन फैल रहा है
इशारों में सब तय होता है
भूख के आगे सम्मान बौना हो जाता है
प्रतिरोध सपाट होकर
जमीन पर बिछ जाता है ।
शाम घिर आई है
नौन तेल आटा थैली में लेकर
झुग्गी पर लौटता है मुरारी
शाम रंगत बदल रही है
चूल्हे पर आग जलती है
कई रंंगों की चमक
अंधेरे को चीरकर
रोटी में बदल रही है
रोटी जब पकती है
पेट की भूख
मुँह में स्वाद के सपने को साकार करती है
आसपास फैलता है सुगंध का जादू
देह की थकान
खाने की सुगंध के साथ
हवा में विलीन होने को आतुर है
बच्चे थाली को घेरकर
अपनी बारी का इंतजार करते हैं ।
शाम घिर आई है
मनोहरी की थाली में
जूठन ही बाकी है
शिकायतें हैं ,फरियाद हैं
उलाहने हैं ,बेबसी के पैगाम है
सतह पर सिमटी जिंदगी तार तार है
फिर भी हर रात को
सुबह का इंतजार है
सुबह का इंतजार है ।
बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति|🙏
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रचना की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद
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रत्चना की प्रशंसा के लिए हार्दिक आभार
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उत्तम। भाषा की सहजता और बहाव प्रशंसनीय।
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धन्यवाद श्रीमान
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