गर्मी से सूख गयी नदी
अब उसमें बहता नही जल
नदी अपने अस्तित्व के लिए
लड़ रही है ।
आते जाते लोग उसमें फेकतें हैं
अपने घर का कूड़ा
टूटा फूटा सामान ।
टूटी इमारतों का मलबा
शहर का कीच कांदों
इसी में समाता है ।
चोरी चोरी इसकी रेत
चोरी हो जाती है
कोई गोल गोल चमकीले
पत्थर चुराता है ।
नदी रोती है
अपनी मृत देह को निहारती है
छिछले पानी के गड्ढों में
मछलियाँ अपनी आखिरी जंग के लिए
तैयार हो रही है ।
मानसून में नदी ने देखा है
भावनाओं का ज्वार
यौवन की उद्दाम लालसाओं का
आलोड़न विलोड़न
गहरे घुमावदार भंवर ।
शरद के शांत परिवेश में
सौम्यता को परिभाषित करती नदी
सहज, शांत ,स्वच्छ ,निर्मल
जीवनदायनी बनकर रस संचार करती है ।